Красота и достоинство таухида
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Красота и достоинство таухида

Мудрые высказывания
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Са’ид ибн Джубайр, Хасан аль-Басри и Суфьян ас-Саури говорили: “Не будут приняты слова, кроме как с делами. И не будут приняты слова и дела, кроме как с правильными намерениями. И не будут приняты слова, дела и намерения, кроме как в соответствии с Сунной”. аль-Лялякаи в “И’тикъаду ахли-Ссунна” 1/57, Ибн аль-Джаузи в “Тальбису Иблис” 9, аз-Захаби в “Мизануль-и’тидаль” 1/90


Шейх Ибн Къасим говорил:
“В призыве к Аллаху (да’уа) необходимы два условия: первое, чтобы призыв совершался только ради Аллаха, и второе, чтобы призыв соответствовал Сунне Его посланника (мир ему и благословение Аллаха). И тот, кто испортил первое, стал многобожником, а тот, кто испортил второе, стал приверженцем нововведений!” См. “Хашия Китаб ат-таухид” 55.


Имам Малик говорил:
“Клянусь Аллахом истина лишь одна и два противоречащих друг другу мнения, одновременно правильными быть не могут!” См. “Джами’уль-баяниль-‘ильм” 2/82.


Имам аш-Шафи’и:
“Тот, кто требует знание без доказательств, подобен тому, кто собирает ночью дрова, который вместе с дровами берет и змею, жалящую его!” аль-Байхакъи в “аль-Мадхаль” 1/211.


Шейх Ибн аль-Къайим сказал:
“Известно, что когда произносится ложь и умалчивается истина – это порождает незнание истины и приводит к заблуждению людей!” См. “ас-Сау’аикъуль-мурсаля” 1/315.

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сурат-уль-хумаза (104)

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1сурат-уль-хумаза (104) Empty сурат-уль-хумаза (104) Ср 09 Дек 2009, 20:17

UmmFatima

UmmFatima
Admin
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{بِسْمِ الله الرَّحْمنِ الرَّحِيمِ وَيْلٌ لِّكُلِّ هُمَزَةٍ لُّمَزَةٍ الَّذِي جَمَعَ مَالاً وَعَدَّدَهُ يَحْسَبُ أَنَّ مَالَهُ أَخْلَدَهُ كَلاَّ لَيُنبَذَنَّ فِي الْحُطَمَةِ وَمَا أَدْرَاكَ مَا الْحُطَمَةُ نَارُ الله الْمُوقَدَةُ الَّتِي تَطَّلِعُ عَلَى الأَفْئِدَةِ إِنَّهَا عَلَيْهِم مُّؤْصَدَةٌ فِي عَمَدٍ مُّمَدَّدَةٍ}.

Во имя Аллаха, милостивого, милосердного
1.  Горе всякому хулителю и обидчику,
2.  который копит состояние и подсчитывает его,
3.  думая, что богатство увековечит его.
4.  О нет! Он будет ввергнут в Огонь сокрушающий.
5.  Откуда ты мог знать, что такое Огонь сокрушающий?
6.  Это – разожженный Огонь Аллаха,
7.  который вздымается над сердцами.
8.  Он сомкнется над ними
9.  высокими столбами.



Последний раз редактировалось: UmmFatima (Пт 18 Дек 2015, 08:34), всего редактировалось 2 раз(а)

2сурат-уль-хумаза (104) Empty Re: сурат-уль-хумаза (104) Чт 31 Янв 2013, 12:16

Гость


Гость

сурат-уль-хумаза (104) 91624



Конспект по лекции: Тафсир суры «аль-Хумаза»,


шейха аль- ‘Усаймина, да помилует его Аллах





وَيْلٌ لِّكُلِّ هُمَزَةٍ لُّمَزَةٍ


1. Горе всякому хулителю и обидчику, «ويل» – данное
слово используется для устрашения. Арабское слово «хумазатун» (хулитель)
относится ко всем, кто порочит людей своими делами, либо высмеивает их,
показывая на них пальцем.



А слово «лумазатун» (поноситель) относится к тем, кто злословит в
адрес других и поносит их скверными речами.






الَّذِى جَمَعَ مَالاً وَعَدَّدَهُ


2. который копит состояние и подсчитывает его,


т.е. жаждут богатства и любят
пересчитывать его, даже если от этого богатство ничего не убавилось и ничего не
прибавилось. Это является их единственной заботой в этом мире. Поэтому в данном
аяте использован глагол с «таждидом», что указывает на многократное действие.






يَحْسَبُ أَنَّ مَالَهُ أَخْلَدَهُ


3. думая, что богатство увековечит его.


он полагает, что богатство способно
продлить ему жизнь и увековечить о нем память. Однако это не так, поэтому Аллах
сказал:






كَلاَّ لَيُنبَذَنَّ فِى الْحُطَمَةِ


4. О нет! Он будет ввергнут в Огонь сокрушающий.


«كلا» – «حرف
ردع
» частица опровержения, или в значении: «حقًّا» т.е. «поистине». Частица «лям» в данном аяте указывает на
скрытую клятву: «
والله», т.е.: «О нет! Клянусь Аллахом! Он будет
ввергнут в Огонь сокрушающий»






وَمَآ أَدْرَاكَ مَا الْحُطَمَةُ


5. Откуда ты мог знать, что такое Огонь сокрушающий?


Вопрос в данном аяте для возвеличивания. Три слова: «حطمة», «همزة», «لمزة»
образованы по одной форме, для того что бы наказание соответствовало
содеянному, даже в произношении.






نَارُ الله الْمُوقَدَةُ


6. Это – разожженный Огонь Аллаха,


данное выражение: «Огонь Аллаха»,
используется для того что бы указать на справедливость данного наказания.






الَّتِى تَطَّلِعُ عَلَى الاَْفْئِدَةِ


7. который вздымается над сердцами.


Т.е. сила этого Огня такова, что он
достигнет сердец людей, несмотря на то, что сердце находится глубоко в теле
человека.






إِنَّهَا عَلَيْهِم مُّؤْصَدَةٌ


8. Он сомкнется над ними,


т.е. Двери Ада закроются, и
они не смогут выйти оттуда. Как об этом сказал Аллах:



كلما أرادوا أن يخرجوا منها أعيدوا فيها


«Всякий раз, ког­да они захотят выйти оттуда, их вернут
туда»
(ас-Саджда, 20)


Т.е. когда обитатели Ада поднимутся к дверям чтобы выйти, их
опрокинут туда обратно. Этим самым они получат два наказания: моральное и
телесное.



فِى عَمَدٍ مُّمَدَّدَةِ


9. высокими столбами.


чтобы обитатели Ада не могли выйти из него.  
                           Собрал и подготовил Абу Исмагиль

3сурат-уль-хумаза (104) Empty Re: сурат-уль-хумаза (104) Чт 31 Янв 2013, 21:09

UmmFatima

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asS djezakiAllax rosa7

4сурат-уль-хумаза (104) Empty Re: сурат-уль-хумаза (104) Пт 18 Дек 2015, 09:15

UmmFatima

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 تفسير سورة الهمزة

{بِسْمِ الله الرَّحْمنِ الرَّحِيمِ وَيْلٌ لِّكُلِّ هُمَزَةٍ لُّمَزَةٍ الَّذِي جَمَعَ مَالاً وَعَدَّدَهُ يَحْسَبُ أَنَّ مَالَهُ أَخْلَدَهُ كَلاَّ لَيُنبَذَنَّ فِي الْحُطَمَةِ وَمَا أَدْرَاكَ مَا الْحُطَمَةُ نَارُ الله الْمُوقَدَةُ الَّتِي تَطَّلِعُ عَلَى الأَفْئِدَةِ إِنَّهَا عَلَيْهِم مُّؤْصَدَةٌ فِي عَمَدٍ مُّمَدَّدَةٍ}.

البسملة تقدم الكلام عليها. {وَيْلٌ لِّكُلِّ هُمَزَةٍ} في هذه السورة يبتدئ الله سبحانه وتعالى بكلمة {وَيْلٌ} وهي كلمة وعيد، أي أنها تدل على ثبوت وعيد لمن اتصف بهذه الصفات. {هُمَزَةٍ لُّمَزَةٍ} إلى آخره، وقيل: إن {وَيْلٌ} اسم لوادٍ في جهنم ولكن الأول أصح. {لِّكُلِّ هُمَزَةٍ لُّمَزَةٍ} كل من صيغ العموم، والهمزة واللمزة وصفان لموصوف واحد، فهل هما بمعنى واحد؟ أو يختلفان في المعنى؟ قال بعض العلماء: إنهما لفظان لمعنى واحد، يعني أن الهمزة هو اللمزة. وقال بعضهم: بل لكل واحد منهما معنى غير المعنى الاخر. وثم قاعدة أحب أن أنبه عليها في التفسير وغير التفسير وهي: أنه إذا دار الأمر بين أن تكون الكلمة مع الأخرى بمعنى واحد، أو لكل كلمة معنى، فإننا نجعل لكل واحدة معنى، لأننا إذا جعلنا الكلمتين بمعنى واحد صار في هذا تكرار لا داعي له، لكن إذا جعلنا كل واحدة لها معنى صار هذا تأسيسًا وتفريقًا بين الكلمتين، والصحيح في هذه الآية {لِّكُلِّ هُمَزَةٍ لُّمَزَةٍ} أن بينهما فرقًا: فالهمزة: بالفعل. واللمز: باللسان، كما قال الله تعالى: {وَمِنْهُم مَّن يَلْمِزُكَ فِي الصَّدَقَاتِ فَإِنْ أُعْطُواْ مِنْهَا رَضُواْ وَإِن لَّمْ يُعْطَوْاْ مِنهَا إِذَا هُمْ يَسْخَطُونَ} [التوبة: 58]. فالهمز بالفعل يعني أنه يسخر من الناس بفعله إما أن يلوي وجهه، أو يعبس بوجهه. أو ما أشبه ذلك، أو بالإشارة يشير إلى شخص، انظروا إليه ليعيبه أو ما أشبه ذلك، فالهمز يكون بالفعل، واللمز باللسان، وبعض الناس - والعياذ بالله - مشغوف بعيب البشر إما بفعله وهو الهمَّاز، وإما بقوله وهو اللمَّاز، وهذا كقوله تعالى: {وَلا تُطِعْ كُلَّ حَلاَّفٍ مَّهِينٍ هَمَّازٍ مَّشَّاء بِنَمِيمٍ} [القلم: 10، 11]. {الَّذِي جَمَعَ مَالاً وَعَدَّدَهُ} هذه أيضًا من أوصافه القبيحة جماع مناع، يجمع المال، ويمنع العطاء، فهو بخيل لا يعطي يجمع المال ويعدده. {وَعَدَّدَهُ} وقيل: معنى التعديد يعني الإحصاء يعني لشغفه بالمال كل مرة يذهب إلى الصندوق ويعد، يعد الدراهم في الصندوق في الصباح، وفي آخر النهار يعدها، وهو يعرف أنه لم يأخذ منه شيئًا ولم يضف إليه شيئًا لكن لشدة شغفه بالمال يتردد عليه ويعدده، ولهذا جاءت بصيغة المبالغة {عَدَّدَهُ} يعني أكثر تعداده لشدة شغفه ومحبته له يخشى أن يكون نقص، أو يريد أن يطمئن زيادة على ما سبق فهو دائمًا يعدد المال. وقيل معنى {عَدَّدَهُ} أي جعله عُدة له يعني ادخره لنوائب الدهر، وهذا وإن كان اللفظ يحتمله لكنه بعيد، لأن إعداد المال لنوائب الدهر مع القيام بالواجب بأداء ما يجب فيه من زكاة وحقوق ليس مذمومًا، وإنما المذموم أن يكون أكبر هم الإنسان هو المال، يتردد إليه ويعدده، وينظر هل زاد، هل نقص، فالقول بأن المراد عدده أي: جمعه للمستقبل قول ضعيف. {يَحْسَبُ أَنَّ مَالَهُ أَخْلَدَهُ} يعني يظن هذا الرجل أن ماله سيخلده ويبقيه، إما بجسمه وإما بذكره، لأن عمر الإنسان ليس ما بقي في الدنيا، بل عمر الإنسان حقيقة ما يخلده بعد موته، ويكون ذكراه في قلوب الناس وعلى ألسنتهم، فيقول في هذه الآية: {يَحْسَبُ أَنَّ مَالَهُ أَخْلَدَهُ} أي: أخلد ذكره أو أطال عمره، والأمر ليس كذلك. فإن أهل الأموال إذا لم يُعرفوا بالبذل والكرم فإنهم يخلدون لكن بالذكر السيىء. فيقال: أبخل من فلان، وأبخل من فلان ويذكر في المجالس ويعاب، ولهذا قال: {كَلاَّ لَيُنبَذَنَّ فِي الْحُطَمَةِ} {كَلاَّ} هنا يسميها العلماء حرف ردع أي: تردع هذا القائل أو هذا الحاسب عن قوله أو عن حسبانه. ويحتمل أن تكون بمعنى حقًّا "يعني حقًا لينبذن" وكلاهما صحيح، هذا الرجل لن يخلده ماله، ولن يخلد ذكراه، بل سينسى ويطوى ذكره، وربما يذكر بالسوء لعدم قيامه بما أوجب الله عليه من البذل. {لَيُنبَذَنَّ فِي الْحُطَمَةِ} اللام هذه واقعة في جواب القسم المقدر، والتقدير "والله لينبذن في الحطمة" أي: يطرح طرحًا. وإذا قلنا: أن اللام لجواب القسم صارت هذه الجملة مؤكدة باللام، ونون التوكيد، والقسم المحذوف. ومثل هذا كثير في القرآن الكريم، أي تأكيد الشيء باليمين، واللام، والنون. والله تعالى يقسم بالشيء تأكيدًا له وتعظيمًا لشأنه. وقوله: {لَيُنبَذَنَّ} ما الذي يُنبذ هل هو صاحب المال أو المال؟ كلاهما ينبذ، أما صاحب المال فإن الله يقول في آية أخرى: {يَوْمَ يُدَعُّونَ إِلَى نَارِ جَهَنَّمَ دَعًّا} [الطور: 13]. أي: يدفعون، وهنا يقول: "ينبذ" أي يطرح في الحطمة، والحطمة هي التي تحطم الشيء، أي: تفتته وتكسره فما هي؟ قال الله تعالى: {وَمَا أَدْرَاكَ مَا الْحُطَمَةُ} وهذه الصيغة للتعظيم والتفخيم {نَارُ الله الْمُوقَدَةُ} هذا الجواب أي: هي نار الله الموقدة. وأضافها الله سبحانه وتعالى إلى نفسه؛ لأنه يعذب بها من يستحق العذاب فهي عقوبة عدل وليست عقوبة ظلم. أي: نار يحرق الله بها من يستحق أن يُعذب بها، إذًا هي نار عدل وليست نار ظلم. لأن الإحراق بالنار قد يكون ظلمًا وقد يكون عدلًا، فتعذيب الكافرين في النار لا شك أنه عدل، وأنه يُثنى به على الرب عز وجل حيث عامل هؤلاء بما يستحقون. وتأمل قوله: {الْحُطَمَةُ} مع فعل هذا الفاعل {هُمَزَةٍ لُّمَزَةٍ} حطمة، وهمزة لمزة، على وزن واحد ليكون الجزاء مطابقًا للعمل حتى في اللفظ {نَارُ الله الْمُوقَدَةُ} أي: المسجّرة المسعرة. {الَّتِي تَطَّلِعُ عَلَى الأَفْئِدَةِ} الأفئدة جمع فؤاد وهو القلب. والمعنى: أنها تصل إلى القلوب - والعياذ بالله - من شدة حرارتها، مع أن القلوب مكنونة في الصدور وبينها وبين الجلد الظاهر ما بينها من الطبقات لكن مع ذلك تصل هذه النار إلى الأفئدة. {إِنَّهَا عَلَيْهِم} أي: الحطمة وهي نار الله الموقدة أي على الهمَّاز واللمَّاز الجمَّاع للمال المناع للخير، وأعاد الضمير بلفظ الجمع مع أن المرجع مفرد باعتبار المعنى، لأن {لِّكُلِّ هُمَزَةٍ} عام يشمل جميع الهمَّازين وجميع اللمَّازين {مُّؤْصَدَةٌ} أي: مغلقة، مغلقة الأبواب لا يُرجى لهم فرج - والعياذ بالله - {كُلَّمَا أَرَادُوا أَن يَخْرُجُوا مِنْهَا أُعِيدُوا فِيهَا} يعني: يرفعون إلى أبوابها حتى يطمعوا في الخروج ثم بعد ذلك يركسون فيها ويعادون فيها، كل هذا لشدة التعذيب؛ لأن الإنسان إذا طمع في الفرج وأنه سوف ينجو ويخلص يفرح، فإذا أعيد صارت انتكاسة جديدة، فهكذا يعذبون بضمائرهم وأبدانهم، وعذاب أهل النار مذكور مفصل في القرآن الكريم والسنة النبوية. تأمل الان لو أن إنسانًا كان في حجرة أو في سيارة اتقدت النيران فيها وليس له مهرب، الأبواب مغلقة ماذا يكون؟ في حسرة عظيمة لا يمكن أن يماثلها حسرة. فهم - والعياذ بالله - هكذا في النار، النار عليهم مؤصدة {فِي عَمَدٍ مُّمَدَّدَةٍ} أي: أن هذه النار مؤصدة، وعليها أعمدة ممدة أي ممدودة على جميع النواحي والزوايا حتى لا يتمكن أحد من فتحها أو الخروج منها. حكى الله سبحانه وتعالى ذلك علينا وبينه لنا في هذه السورة لا لمجرد أن نتلوه بألسنتنا، أو نعرف معناه بأفهامنا، لكن المراد أن نحذر من هذه الأوصاف الذميمة: عيب الناس بالقول، وعيب الناس بالفعل، والحرص على المال حتى كأن الإنسان إنما خلق للمال ليخلد له، أو يخلد المال له، ونعلم أن من كانت هذه حاله فإن جزاءه هذه النار التي هي كما وصفها الله، الحطمة، تطلع على الأفئدة، مؤصدة، في عمد ممدة. نسأل الله تعالى أن يجيرنا منها، وأن يرزقنا الإخلاص في القول والعمل والاستقامة على دينه

Шарх шейх Усаймин рахимахуЛЛах

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